जब आंसुओं की बारिश में, मिट्टी के रिश्ते धुलतें है,
जो देखे नहीं थे कभी, तब वो चहरे निकलते हैं,
शमां जली जब, खुद को जलाने परवाने आ गए,
पर मरतें कहाँ है वो, जो मोहब्बत की आग में जलते है,
काफिर के घर बैठ कर पी ग़ालिब या मस्जिद में बैठ,
खुदा की जानिब से क्या, होश तेरे ही संभलते है,
मत पूछ की कब्रों पे जा हंसता क्यों है मनीष,
रोया बहुत हूँ उन कब्रों को देख, जो शहर में जिन्दा चलते है,
ये पर्दागोशी, हया के कायदे, मर्दों तुमने पढ़े नहीं,
औरतों के दफ़न है सीने में, क्यों तुम्हारे ही अरमां मचलते है,
वो मंजिल क्या पाएंगे जो मुसाफिर नहीं बने कभी,
भटक तो वो गए है, जो घर से
हीं नहीं निकलते है,
आज फिर वो अपना सौदा कर आया है,
हमने देखे चंद सिक्कों की खातिर ईमान पिघलते है,
मैं रोज़े नहीं रखता, इसलिए नहीं की काफ़िर हो गया हूँ,
फ़कत ख्याल है उनका, जो मेरे जिस्म में पलते है,
लो नमाज़ का वक़्त हुआ, तुम्हे तो याद है आयतें कुरआन की,
तुम वज़ू कर लो, हम गोया बागीचे में टहलतें है...
- मनीष
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