पुश्तैनी मकां में भूल से कोई सेंध लगा रहा हो जैसे,
उठ जाग देख! तेरा ही हाथ है तेरे गिरेबान पर,
कोई दुश्मन ख्वाब में गला दबा रहा हो जैसे,
मुसाफिरों ने बस्ती बसा ली मुसाफिरी छोड़ कर,
मालिक अपनी दूकान में फरेब करा रहा हो जैसे,
दरो-दीवार सजा के त्यौहार मन रहे है सब,
परिंदा पिंजरे को ही घर समझ रहा हो जैसे,
खुदा से बढकर हो गई है दौलत या-खुदा,
मकड़ी खुद के जाल में फंस गई हो जैसे,
इंसान से डरकर इंसान से, रखवाले इंसान रख लिए देखो,
अंधेरों से डर कोई खुद का घर जला रहा हो जैसे,
मंदिर-मस्जिदों को रोशन कर रहे मतलब से लोग,
बाप बुढापे के सहारे को बेटा पाल रहा हो जैसे,
सिसकियाँ सन्नाटों में, गुनाह पर्दों में दब गए,
अपना ही कोई अस्मत लूट रहा हो जैसे,
इंसान धरती पर है ऐसे, लकड़ी में दीमक लगी हो जैसे...
-मनीष
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