Friday, April 27, 2012

अल्लाह को प्यारे हो गए...



हमने दिल अपना शीशे का कर लिया, 
तुम जबसे पत्थर दिल हो गए,
तुमने आईना तोड़कर अपनी तस्वीर मिटानी चली थी,
देखो! हर टुकड़े में तुम हो गए...

हमने हर शै को सनम नाम दे दिया तुम्हारा,
तुमने जब से बेवफाई की,
तुम्हारा ख्याल था की मुझसे अब कभी न मिलोगे,
देखो! हर जर्रे में तुम हो गए...

हमने निगाहें ही अपनी बंद कर ली सदा के लिए,
जब से आँखे फेर ली तुमने मुझसे,
तुम समझे थे की कभी दिखलाई ना दोगे हमें,
देखो! रूहे-जहाँ में सिर्फ तुम हो गए,

हमने मस्जिद की राह पकड़ ली उस दिन,
तुम जिस दिन से शहर छोड़ गए,
हमें मुहोब्बत से महरूम रखना तुमने चाह होगा,
मगर देखो! हम अल्लाह को प्यारे हो गए...

-मनीष 




Wednesday, April 25, 2012

मैं बड़ा हो गया हूँ


ऐ इश्क, तू अब मेरी नज़रों से बच न सकेगा,
में तुझे ढूंढ ही लूँगा, तू जहाँ कभी भी छुपेगा,
अब बच्चा नहीं रहा, बड़ा हो गया हूँ मैं,
ये आँख मिचोली का खैल अब नहीं चलेगा,

मैंने जान लिया-
तू पिता के प्यार में है, माँ की फटकार में है,
तू दोस्ती में भी है और तू तकरार में है,
संगीत में बसा हुआ है तू झंकार में है,
तू देशभक्तों की पुकार में भी है,
तू दुश्मनी में है, और प्यार में है,
युद्द में है तू, तू रास में है,
तू सागर में और सहराँ में है,
तू सब में है और जर्रे जर्रे में है...

देख मैंने जान लिया तू मेरी निगाह में है,
अब तू मेरी निगाहों से बच न सकेगा,
मैं बड़ा हो गया हूँ, आँख मिचोली चल न सकेगा.
-मनीष 




Sunday, April 22, 2012

आदत से मजबूर



आदत से मजबूर है हर कोई,
कुछ न कुछ तो जरूर मांगे है,
पर हेरान हूँ ये जानकार,
ये सब क्या मांगे है...

कौओं को मिले श्राद्ध, सो तुम्हारे मरने की दुआ मांगे है,
मस्जिद में भी बैठकर ग़ालिब, शराब मांगे है,
खुदा के घर में जा लोग, दौलत मांगे है,
नफरत बांटे है दोनों हाथो से और प्यार मांगे है,
 
इंसान को इंसान से उम्मीद नहीं, कुत्तो से वफ़ादारी मांगे है,
दूसरों को जानवर कहें और खुद उनकी खाल मांगे है,
बेशुमार दौलत दी भगवान् ने, पर प्यार मांगे है,
जिनके पास वो अक्ल से अंधे, बाकी सब आँख मांगे है,
 
सब करें है लड़के पैदा, मगर लड़की मांगे है,
हिन्दू राम-भक्त से बल और शक्ति मांगे है,
मुसल्मा बकरे के बदले, दोनों जहान मांगे है,
भगवान् हाथ बाँध तुम्हारे कर्मों का हिसाब मांगे है,
खुदा है या दूकानदार जन्नत के बदले नमाज़ मांगे है,
 
महफ़िल में जा कर भी लोग मज़ा मांगे है,
मंजिल पे पहुँच कर हर कोई फिर सफ़र मांगे है,
जाने है रात बिन नहीं होता पर दिन मांगे है,
बीत गया जो, वो बचपन और जवानी मांगे है,
नोका मिले तो खिवैया, सागर मिले तो पानी मांगे है,
 
आदत से मजबूर सब, कुछ न कुछ तो जरूर मांगे है,
पर जो भी मांगे है अजीब मांगे है....
-मनीष




Thursday, April 19, 2012

दस्तक


हुई दस्तक, दरवाज़े पर पहचाना सा साया है,
ये वही ग़म है, आज भेष बदल कर आया है,
मैं हेरान हूँ ये तकल्लुफ कबसे उठाने लगा,
बिन बुलाये मेहमां की तरह आने वाला,
बता कर कबसे आने लगा,
जाने उसे आज क्या हुआ है बताकर आया है,

बोझल मन से ख़ुशी जीने से नीचे उतर आई है,
वाकिफ है दस्तूर से, उसके जाने का वक़्त आया है,

कितने मजबूर दिखाई देते है,
एक दूजे के लिए बने थे कभी,
आज मजदूर दिखाई देते है,
एक का काम पूरा हुआ, दूसरा फ़र्ज़ निभाने आया है,

ख़ुशी की आँखों में ग़म के आंसू है,
ग़म के होटों में ख़ुशी की मुस्कान का साया है,

अजीब दास्ताँ है दोनों के मुहोब्बत की,
एक दुसरे से नज़र चुराए तो है, मगर,
मेरी नज़रों से ये किस्सा आज ना बच पाया है,

"रूको तुम दोनों" मैंने कहा "अहसानमंद हूँ तुम्हारा,
मुझे तन्हा रखा न कभी, अपना कर्ज़दार बनाया है,
आओ पास बैठो, अपना गुनाह कबूल कर लेने दो,
तुम जन्मो से मिले नहीं, है मेरी खता मैं समझ न पाया,
ग़म तुम शोहर बन जाओ, ख़ुशी का हाथ थाम लो,
मेरे दिल में तुम दोनों के निकाह का ख्याल आया है",

शुक्रगुजार हूँ, दोनों को कबूल है, मानो दिल की बात कहदी,
आज मनीष अपने हाथों से ग़म और ख़ुशी रूखसत कर आया है,

वो कभी-कभी आ जाते है मिलने मिलाने,
मगर रूकते नहीं है मेहमां-नवाजी की लुत्फ़ उठाने,
नज़र ना लगे दोनों को किसी की,
खुदा ने भी क्या खूब जोड़ा बनाया है...
-मनीष 




Wednesday, April 18, 2012

मुसाफिरों ने बस्ती बसा ली


इंसान धरती पर है ऐसे, लकड़ी में दीमक लगी हो जैसे,
पुश्तैनी मकां में भूल से कोई सेंध लगा रहा हो जैसे,


उठ जाग देख! तेरा ही हाथ  है तेरे गिरेबान पर,
कोई दुश्मन ख्वाब में गला दबा रहा हो जैसे,


मुसाफिरों ने बस्ती बसा ली मुसाफिरी छोड़ कर,
मालिक अपनी दूकान में फरेब करा रहा हो जैसे,


दरो-दीवार सजा के त्यौहार मन रहे है सब,
परिंदा पिंजरे को ही घर समझ रहा हो जैसे,

खुदा से बढकर हो गई है दौलत या-खुदा,
मकड़ी खुद के जाल में फंस गई हो जैसे,

इंसान से डरकर इंसान से, रखवाले इंसान रख लिए देखो,
अंधेरों से डर कोई खुद का घर जला रहा हो जैसे,  

मंदिर-मस्जिदों को रोशन कर रहे मतलब से लोग,
बाप बुढापे के सहारे को बेटा पाल रहा हो जैसे,

सिसकियाँ सन्नाटों में, गुनाह पर्दों में दब गए,
अपना ही कोई अस्मत लूट रहा हो जैसे,

इंसान धरती पर है ऐसे, लकड़ी में दीमक लगी हो जैसे...
-मनीष 




Saturday, April 14, 2012

जिसकी चाहत, वो मिले...


जिसकी चाहत, वो मिले तो ख़ुशी होती है, न मिले तो शबे-गम रोती है,
जो था नहीं अपना उसे पाना चाहा, जब मिला नहीं तो आँख क्यों रोती है,
घिर आये बादल घनेरे, डराते है गम के अँधेरे,
वज़ह अपने चिराग को भूल जाने की नादानी होती है,

और पाने की ख्वाहिश पर रखा नहीं संभाल, जो मिला,
है तो गौर नहीं, ना हो तो परेशानी होती है,

रिश्तों को खून से या फकत धागों से क्या,
वंहा बन ही जाते है जहां मुहोब्बत होती है,

दोस्ती का ज़ज्बा दोस्तों में दिखता नहीं आजकल,
दुश्मनों को भी गले मिले ऐसी शराफत होती है,

तुम खुदा से भी मिलोगे तो कुछ मांग बैठोगे,
न जाने गई कंहा वो जो आँखों में शरम होती है,

उस शख्श को मारना मुमकिन नहीं मनीष,
इज्जत बक्शी पर उसकी निगाहें नीचे होती है,

तुम रोते बैठे हो की सब खो दिया तुमने,
उससे भी पूछो, जिसकी सांस आखरी होती है,

हर अत चीज़ अमानत है बाखुदा,
अलावा तुम्हारे, तुमसे हर चीज़ जुदा होती है,

 तुम बुत-ए-खामोश बनकर क्यों बैठ गए,
किसने कहा की हर चुप चीज़ खुदा होती है,

 पैसे तो लूटाओ उस तबायफ पर, मगर ख्याल रहे,
वो शोंकिया ये नहीं करती, उसमे भी इक माँ होती है.
-मनीष 




Wednesday, April 11, 2012

क्यों न गांऊ मैं...


क्यों न गांऊ मैं, ना गाने की वज़ह दे दो,
या तुम दिखाई न दो, मुझे वो नज़र दे दो,

उसके ही नूर से रौशन है तुम्हारा ये मकां,
इल्तिजा है किसी कोने में जगह दे दो,

मैं मुट्ठी भर धुप लाया हूँ मंदिर बुहार कर,
आँखों के सितारे बना लो इन्हें, आँचल में जगह दे दो,

एक बच्चे की मुस्कराहट संभाल रखी है मैंने,
तुम होटों पे सजा लो, इस शाम को सहर दे दो,

हर महफ़िल में तन्हाइया घूरती है मुझे,
या तुम आ जाओ या इन्हें ज़हर दे दो,

मैंने दिले-जमीं पर प्रेम बीज बो रखा है,
तुम बरसोगे कभी, बस इक वो खबर दे दो,

क्या हुआ जो पूरे न हुए, तुम वादे करने ना छोडो, 
बस सह सकूं मैं हर बार, मुझे वो जिगर दे दो...

-मनीष




Tuesday, April 10, 2012

आंसुओं की बारिश


जब आंसुओं की बारिश में, मिट्टी के रिश्ते धुलतें है,
जो देखे नहीं थे कभी, तब वो चहरे निकलते हैं,

शमां जली जब, खुद को जलाने परवाने आ गए,
पर मरतें कहाँ है वो, जो मोहब्बत की आग में जलते है,  

काफिर के घर बैठ कर पी ग़ालिब या मस्जिद में बैठ,
खुदा की जानिब से क्या, होश तेरे ही संभलते है,

मत पूछ की कब्रों पे जा हंसता क्यों है मनीष,
रोया बहुत हूँ उन कब्रों को देख, जो शहर में जिन्दा चलते है,

ये पर्दागोशी, हया के कायदे, मर्दों तुमने पढ़े नहीं,
औरतों के दफ़न है सीने में, क्यों तुम्हारे ही अरमां मचलते है,

वो मंजिल क्या पाएंगे जो मुसाफिर नहीं बने कभी,
भटक तो वो गए है, जो घर से  हीं नहीं निकलते है,

आज फिर वो अपना सौदा कर आया है,
हमने देखे चंद सिक्कों की खातिर ईमान  पिघलते है,

मैं रोज़े नहीं रखता, इसलिए नहीं की काफ़िर हो गया हूँ,
फ़कत ख्याल है उनका, जो मेरे जिस्म में पलते है,

लो नमाज़ का वक़्त हुआ, तुम्हे तो याद है आयतें कुरआन की,
तुम वज़ू कर लो, हम गोया बागीचे में टहलतें है...

- मनीष




Monday, April 9, 2012

...सब हो चमार गए



चंद मदहोश युवक, एक बूढ़े को ताना मार गए,
वो मिटटी के दिए थे, जो बिजली से हार गए,
सदियों से सेहरां में तूफ़ान भटक रहा बेसबब,
जो आँधियों में जलते थे चिराग, सब बेकार गए,

इमारतों ने दरख्तों की जगह छीन ली है दोस्तों, 
दिल जलते है अब, दिए जलने वाले त्यौहार गए,

हज़ारों फूल उनकी राहों में बिछाए थे हमने,
फकत एक कांटा क्या दिखा, वो  हो नाराज़ गए,

तुमने ठीक किया जो उनकी मूर्तियाँ चौराहों पे लगा दी,
अब ये गम तो नहीं कि सभी के मरने बेकार गए,

कोई गाँव में बता ना पाया उस बुजुर्ग का पता,
वो 'ईमान' साहिब थे, शायद परलोक सिधार गए, 

हाँ मैंने भी दौलत जमा की थी बुरे वक़्त के लिए,
चंद दुआएं बची है, वो लौटी ही नहीं जो उधार गए,  

तुम बिलकुल सही कहते थे कबीर मेरे दोस्त, 
लोग बदन का चमड़ा चाहेंगे, लो सब हो चमार गए,

बहुत मेहेंगे है फूल, तुम दूर से दूर से देखो और ललचाओ बच्चों,
तुम्हें एक ना मिलेगा, मंदिर में हो बेशुमार गए,

सरकारी खुदा ने फरमान भेजा है, तेरे गुनाह बताने को,
पर तू सयाना जानता है, खुदा  के चढ़ावे हो हज़ार गए.

- मनीष 




Friday, April 6, 2012

मंदिर में अज़ान सुबह...


दोस्तों का ही नहीं फकत, दुश्मनों का भी एहतराम कीजिये,
मुसलमा मिले तो सलाम, हिन्दू को राम-राम कीजिये,


पर्चे हैं इम्तिहानों के देने सभी को अपने अपने अल्फाजों में,
नतीजा ना हक़ में सही, औरों को नाहक ना परेशान कीजिये,


लड़िये बच्चों की तरह, फिर भूल जाइये और आराम कीजिये,
शिकायत शर्म के पर्दे में, मगर मुहोब्बत सरेआम कीजिये,


मंदिर में अज़ान सुबह, मस्जिद में आरती हर शाम कीजिये,
नश्तर सी चुभे दिल में, न वो बात, ना वो काम कीजिये,


ऐ परवरदिगार, हम समझदारों को थोडा नादान कीजिये..


- मनीष





Wednesday, April 4, 2012

...प्रेम जरूरी है



प्यार मोहताज नहीं रिश्तों का, ना कोई नाम जरूरी है,
पूछो उनसे जिन्होंने निभांये है, दिलों में कितनी दूरी है,
ख़ुशी यां गम में मिलना तुम्हे मतलबी ना बना दे,
आ मिल गले के मिलने के लिए ना ईद जरूरी है,


इन उम्र के फांसलों में, मुझे प्यार की उम्र बता दे कोई,
मंदिर घर हो या चौराहे पर, बस इबादत जरूरी है,


तुम इमां-पसंद, में बुत-ए-कुफ्र, तकरीरें है बहुत,
हर होशियारी भुला इंसान बना दे, वो इक जाम जरूरी है,


जिसे तुम दफना आये सच समझ, वो झूठ था,
खोटें बाज़ार में चलते रहेंगे, मगर हो सच्चा एक सिक्का जरूरी है,


तुमने हाथों से जिस्मों को टटोलकर क्या पाया मनीष,
तुम्हे दूसरों में खुद का अहसास करा दे, वो प्रेम जरूरी है.
-मनीष