Thursday, April 19, 2012

दस्तक


हुई दस्तक, दरवाज़े पर पहचाना सा साया है,
ये वही ग़म है, आज भेष बदल कर आया है,
मैं हेरान हूँ ये तकल्लुफ कबसे उठाने लगा,
बिन बुलाये मेहमां की तरह आने वाला,
बता कर कबसे आने लगा,
जाने उसे आज क्या हुआ है बताकर आया है,

बोझल मन से ख़ुशी जीने से नीचे उतर आई है,
वाकिफ है दस्तूर से, उसके जाने का वक़्त आया है,

कितने मजबूर दिखाई देते है,
एक दूजे के लिए बने थे कभी,
आज मजदूर दिखाई देते है,
एक का काम पूरा हुआ, दूसरा फ़र्ज़ निभाने आया है,

ख़ुशी की आँखों में ग़म के आंसू है,
ग़म के होटों में ख़ुशी की मुस्कान का साया है,

अजीब दास्ताँ है दोनों के मुहोब्बत की,
एक दुसरे से नज़र चुराए तो है, मगर,
मेरी नज़रों से ये किस्सा आज ना बच पाया है,

"रूको तुम दोनों" मैंने कहा "अहसानमंद हूँ तुम्हारा,
मुझे तन्हा रखा न कभी, अपना कर्ज़दार बनाया है,
आओ पास बैठो, अपना गुनाह कबूल कर लेने दो,
तुम जन्मो से मिले नहीं, है मेरी खता मैं समझ न पाया,
ग़म तुम शोहर बन जाओ, ख़ुशी का हाथ थाम लो,
मेरे दिल में तुम दोनों के निकाह का ख्याल आया है",

शुक्रगुजार हूँ, दोनों को कबूल है, मानो दिल की बात कहदी,
आज मनीष अपने हाथों से ग़म और ख़ुशी रूखसत कर आया है,

वो कभी-कभी आ जाते है मिलने मिलाने,
मगर रूकते नहीं है मेहमां-नवाजी की लुत्फ़ उठाने,
नज़र ना लगे दोनों को किसी की,
खुदा ने भी क्या खूब जोड़ा बनाया है...
-मनीष 




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