Saturday, April 14, 2012

जिसकी चाहत, वो मिले...


जिसकी चाहत, वो मिले तो ख़ुशी होती है, न मिले तो शबे-गम रोती है,
जो था नहीं अपना उसे पाना चाहा, जब मिला नहीं तो आँख क्यों रोती है,
घिर आये बादल घनेरे, डराते है गम के अँधेरे,
वज़ह अपने चिराग को भूल जाने की नादानी होती है,

और पाने की ख्वाहिश पर रखा नहीं संभाल, जो मिला,
है तो गौर नहीं, ना हो तो परेशानी होती है,

रिश्तों को खून से या फकत धागों से क्या,
वंहा बन ही जाते है जहां मुहोब्बत होती है,

दोस्ती का ज़ज्बा दोस्तों में दिखता नहीं आजकल,
दुश्मनों को भी गले मिले ऐसी शराफत होती है,

तुम खुदा से भी मिलोगे तो कुछ मांग बैठोगे,
न जाने गई कंहा वो जो आँखों में शरम होती है,

उस शख्श को मारना मुमकिन नहीं मनीष,
इज्जत बक्शी पर उसकी निगाहें नीचे होती है,

तुम रोते बैठे हो की सब खो दिया तुमने,
उससे भी पूछो, जिसकी सांस आखरी होती है,

हर अत चीज़ अमानत है बाखुदा,
अलावा तुम्हारे, तुमसे हर चीज़ जुदा होती है,

 तुम बुत-ए-खामोश बनकर क्यों बैठ गए,
किसने कहा की हर चुप चीज़ खुदा होती है,

 पैसे तो लूटाओ उस तबायफ पर, मगर ख्याल रहे,
वो शोंकिया ये नहीं करती, उसमे भी इक माँ होती है.
-मनीष 




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