Thursday, March 15, 2012

'मैं' न होता तो

खुद न था तो कौन था?
खुद न होता तो क्या होता?
खुदी को क्यों कर बुलंद किया बन्दे?
ये 'मैं' न होता तो क्या होता?


न गम के सेहरा न  बिछुड़ने का आलम,
न रोती हुई बेवा कोई न अनाथ कोई बच्चा होता,
न बेवफाई का दाग किसी को,
न वफाओं की जंजीरों में बंधा होता,
न बादशाह गुलाम संत-फकीर कोई बना होता,


न नमाज़ की बंदिशे न पूजा की ख्वाहिशे,
न सकूं पाने का ही कोई सबब होता,
न इतनी भाषाएँ न धर्म इतने,
न इंसान इतना पेचीदा होता,


तू न तू होता, मैं न मैं होता,
न तू होता, न मैं होता,
एक रूहानी मस्ती होती सब तरफ,
न कोई ऊपर न नीचे कोई  होता,


मैं बनता तू खाता तू सुलाता मैं सोता,
यहाँ जो मिला सब अपना होता,
न तेरे घर खुशियाँ होती,
न मेरे घर मातम होता,


क्या तू न पुचकारता मुझे जब जब मैं रोता,
क्या मैं न हँसता जब तू हँसता होता,
मरता मैं भी जब तू मरता,
ऐसा होता तो क्या अनर्थ होता,


ये 'मैं' न होता तो क्या होता,
ये खुद न होता तो बस...... खुदा होता,
हाँ .... बस खुदा होता...


-मनीष 




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