मगर ये पन्ना मेरी जिंदगी की किताब का, मुझे मसीहा बना रहा है,
तुम हँसते हो मेरी मुफलिसी पर, मुझे तंगदिली पर तुम्हारी रोना आ रहा है,
ऐ मौला मेरे छोड़ मुझे तू इसे बक्श, ये जो चाँद पे इख्तियार पा रहा है,
तेरा नूर-ए-करम ही काफी है मुझ पर, क्यों पैबंद पे मेरे चार चाँद लगा रहा है,
ए बन्दे अब तो कुछ एहसान कर खुद पर, 'उसे देख' जो तुझे आईना दिखा रहा है,
तरन्नुम-ए-मुहोब्बत मेरे संग गुनगुना, छोड़ बेकार की बात,
क्यों सूरज को दीपक दिखा रहा है.
-मनीष
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